लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
यह हम किस अजीबोगरीब दुनिया में रहते हैं? यह विचित्र दुनिया है! विज्ञान और तकनीक सर्र-सर्र आगे बढ़ रहे हैं और साथ ही धर्मांधता भी! चारों तरफ सहनशीलता, उदारता, मानवता की गूंज है। साथ ही हिंसा, लोभ, स्वार्थ, क्षुद्रता, नीचता की भी जय-जयकार हो रही है। न्याय विचार की भी व्यवस्था है, फिर भी बड़े-बड़े युद्ध अपराधी और कातिलों का कोई भी विचार नहीं होता। वे लोग रौब गालिब करते हुए, शान से जिंदा हैं। धन-दौलत और अस्त्रों का रौब-दाब! क्षमता का रौब! वे लोग लच्छेदार बतकही करते रहते हैं और सहज-सरल-निरीह इंसानों को बुद्धू बनाए रखते हैं।
आजकल अमेरिका में किसी-किसी ने यह कहना शुरू कर दिया है कि यह जो संत्रास के नाम पर बिलियन-बिलियन डॉलर खर्च हो रहा है, इसकी क्या वाकई ज़रूरत है? इससे तो बेहतर था कि यह रकम शिक्षा पर खर्च करते, सबके लिए इलाज का इंतज़ाम किया जाता, समाज-विकास के कामों में लगाया जाता। किसी-किसी ने तो यह सवाल भी उठाया है कि साल में तीन सौ बिलियन डॉलर, तथाकथित रक्षा पर खर्च करने के बावजूद, दुनिया भर में मिलिटरी बेस, हर सागर पर अत्याधुनिक अस्त्रों से सजाए हुए, रक्षा-जहाज मौजूद रखकर भी, दुश्मन देशों में लाखों-लाखों लैंडमाइन विखेरकर भी, अमेरिका की सरकार जनता की हिफ़ाज़त निश्चित नहीं कर पाई। अगर कर पाती, तो वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर वह हमला आखिर कैसे संभव होता? वैसे गिनती भर लोगों ने ही यह सवाल उठाया है। बाकी लोग तो अज्ञानता और मूर्खता के अँधेरे में ही, आँखें मूंदकर तैर रहे हैं। वे लोग जानते हैं कि अमेरिका ही समूची दुनिया नहीं है, अमेरिका के बाहर भी, और भी देश हैं, उन देशों में भी इंसान बसते हैं! उन इंसानों का इतिहास है, संस्कृति है। उन इंसानों को भी जीने का हक है। उन लोगों ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से इंसानों की आती हुई चीत्कार, आर्तनाद सुना है। उन लोगों ने खून देखा है। कटे हुए हाथ-पाँव देखे हैं। उन लोगों ने अफ़ग़ानिस्तान के औरत मर्द-बच्चों की रक्ताक्त, छिन्न-भिन्न देह नहीं देखी, उन लोगों का आर्तनाद नहीं सुना। जैसे वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के लोगों को जीने का अधिकार था, अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को भी वह अधिकार था। हज़ारों-हज़ार अफ़गानों की हत्या करने के बाद जब एक अमेरिकी सिपाही की मौत हुई, अमेरिकी सरकार उस सिपाही की मौत के शोक में बावरी हो गई। यह सरकार सहस्रों अफ़गान लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार है, लेकिन उसने एक बार भी कोई शोक प्रकट नहीं किया, कोई दुःख तक जाहिर नहीं किया। किसी तरह की माफी नहीं माँगी। यह जो विशप नामक, पंद्रह साला अमेरिकन किशोर ने ओसामा बिन लादेन और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले का समर्थन करते हुए, अपना छोटा-सा हवाई जहाज, चौबीस मंजिली इमारत के भीतर घुसा दिया, अपनी मौत निश्चित जानकर भी आगे जहाज को टकरा जाने दिया, आखिर क्यों? (छानबीन करने पर पता चला है कि विशप को किसी तरह की दिमागी बीमारी नहीं थी। वह अतिशय तेज़ बुद्धि का किशोर था)। इतने-इतने सालों से विभिन्न देशों के लोग अमेरिकी पताका क्यों जला रहे हैं? अमेरिका के प्रति सभी इतने नाराज़ क्यों हैं? अगर कोई यह सवाल उठाता तो उसे जवाब भी मिलता। अमेरिका पर लोग इस कदर नाराज क्यों हैं, इस सवाल के जवाब में प्रेसिडेंट बुश ने कहा, 'क्योंकि अमेरिका गणतंत्र में विश्वास करता है, क्योकि अमेरिका वाक्-स्वाधीनता में विश्वास करता है।' खैर एकमात्र बुश को ही यह आज़ादी है कि वे कुछ भी बोलें, वर्ना अमेरिका के मुक्तबुद्धि में विश्वास रखने वाले लोग, सरकार नियंत्रित प्रचार-माध्यम में अपनी बात कहने का मौका न पाकर वाक्-स्वाधीनता नामक बिल्कुल अलग टेलीविजन न खोल लेते। 'गणतंत्र अब निर्वासन में है'-इस नाम से इंटरनेट में किसी भी आंदोलन की कतई ज़रूरत न होती। अब्राहम लिंकन ने कहा था, 'तुम हमेशा चंद लोगों को बेवकूफ बना सकते हो, कुछ वक्त तक लोगों को बेबकूफ बना सकते हो, लेकिन हमेशा बेवकूफ नहीं बना सकते।'
गणतंत्र के कई-कई स्तर होते हैं। सरकार अगर किसी का बारह बजाना चाहे तो क्या वह बजा सकती है? पहले संसद में बारह बजाने के लिए क़ानून पास करना होगा। उसके बाद, सुप्रीम कोर्ट से बारह बजाने के मामले में अनुमोदन प्राप्त करना होगा। कोर्ट यह देखेगा कि बारह बजाना, संविधानसम्मत है या नहीं। अमेरिका में क्या कभी ऐसा होता है? कभी हुआ है। कम से कम विदेश नीति और युद्ध के मामले में तो नहीं हुआ है। युद्ध का प्रसंग उठते ही, संसद ने एक वाक्य में, हर किसी सरकार प्रधान को सहमति प्रदान की है। वैसे इस बार सिर्फ एक ही सदस्य ने प्रतिवाद किया है-बारबरा ली ने! अफ़ग़ानिस्तान में बुश की युद्ध घोषणा के पक्ष में उन्होंने कागज पर दस्तखत नहीं किया। उन्होंने कहा कि वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में निरीह लोगों की मौतें हुईं, हम शोकाहत हैं। हम नहीं चाहते कि दुनिया में कहीं भी, अब किसी भी निरीह मनष्य की मत्य हो। लेकिन बश बारबरा ली की बातों की परवाह क्यों करने लगे? अमेरिका में जिसके पास ज़्यादा दौलत है, उसे ही उच्च-शिक्षा का मौका मिलता है, उन्हीं को बेहतर इलाज मिलता है। उन्हीं लोगों के जीवनयापन का स्तर ऊँचा है। जिनके पास कम दौलत है, उनकी तकदीर में कुछ भी नहीं जुटता। उन्हें न शिक्षा नसीब है, न चिकित्सा! उनके पास तो सिर छिपाने के लिए जगह तक नहीं है। पूँजीवादी देशों का नियम ही यही है कि धनी के लिए और धन जुटाया जाए, दरिद्र, दरिद्र ही रहे। अभी उस दिन बुश साहब ने फरमाया-'शिक्षा, चिकित्सा से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि फिलहाल रक्षा पर खर्च किया जाए। रक्षा-खर्च वे और बढ़ाएँगे।' असल में इसे रक्षा खाते में खर्च न कहकर, आक्रमण-खर्च कहना ज़्यादा संगत है। अब तक अमेरिका ने जितने भी देशों पर हमला किया है, सच पूछे, तो वह कभी भी रक्षा के नज़रिए से नहीं किया। दुनिया में ऐसी कोई भी ताकत नहीं है, जो अमेरिका के आस-पास भी पहुँच सके; दुनिया में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है, जो प्रतिरक्षा के लिए अमेरिका को यूँ जी-जान से पीछे पड़ना पड़े। पिछली शती के एक ख़ास दशक में अमेरिका में, आइ एफ स्टोन नामक एक पत्रकार थे। उन्होंने देश के चालू अखबारों के खिलाफ प्रतिवाद जाहिर करते हुए, एक छोटा-सा अखबार निकालने की शुरुआत की, जिसमें बिना किसी लाग-लपेट के, वे सच्ची ख़बरें छापते थे। लोग-बाग़ जब भी चालू अखबारों की किसी ख़बर पर शक जाहिर करते तब वे लोग सच्ची ख़बर जानने के लिए स्टोन का अखबार पढ़ते थे। उन दिनों स्टोन काफी मशहूर हो उठे। स्टोन जब नए-नए पत्रकारों को सलाह देते थे, वे एक ही वात बार-बार कहते थे-सरकार झूठ बोलती है। युद्ध में जाने से पहले सरासर झूठ बोलती है। स्टोन ने सरकार के असली चेहरे को पहचान लिया था। ज़्यादातर लोग ऐसा नहीं कर पाते। उन लोगों ने स्कूल में अमेरिका के गौरव का इतिहास पढ़ा है। इससे बाहर का कोई इतिहास इन लोगों ने नहीं पढ़ा। अमेरिका की विदेश नीति और यद्ध के कारण के बारे में सरकार जनता को जो समझाती है, जनता वही समझ लेती है। अमेरिकी सरकार ने इस बारे में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की दुर्घटना के साथ पर्ल हार्बर का तालमेल खोज निकाला है। पर्ल हार्बर के साथ मेल? किसके साथ किसका मेल? जापान सरकार ने अमेरिका के पर्ल हार्बर द्वीप पर जहाजी हमला करके, अमेरिका की विशाल नौ-वाहिनी को तहस-नहस कर डाला था। अस्त्र के लिए धन-क्षमता में, जापान बडा शक्तिशाली राष्ट है। वर्ल्ड टेड सेंटर पर हमले के पीछे कौन-सी भयंकर शक्ति मौजूद है, जो इसकी तुलना पर्ल हार्बर से की गई है?
अमेरिकी सरकार इतिहास से तो सबक नहीं ही लेती, वह तो इतिहास का गलत इस्तेमाल करती है। अमेरिका सिर्फ अपनी विदेश नीति के मामले में ही अपना भयंकर निष्ठुर चरित्र जाहिर करता है, ऐसा नहीं है। द्वितीय विश्वयुद्ध तक गृह-नीति में संत्रास कम नहीं था। पहले विश्वयुद्ध में जिन लोगों ने युद्ध के पक्ष में राय नहीं दी थी, अमेरिकी सरकार ने उन्हें पकड़-पकड़कर जेल में ठूस दिया। दूसरे महायुद्ध के समय, जितने भी जापानी, अमेरिका में बसे हुए थे, अमेरिका ने उन लोगों को कन्संट्रेशन कैंप में डाल दिया। हिटलर ने यहूदियों पर जो अत्याचार किए, अमेरिका ने उतना न सही, जापानियों पर कम सितम नहीं बरसाए। उन लोगों का आखिर क्या कसर था? सरकार ने झठ कहा, यह बात कछ लोग ही जानते थे। अमेरिका सरकार ने पहले विश्वयुद्ध से पहले झूठ कहा! उसने मेक्सिको, मध्य अमेरिका, फिलिपिन, कोरिया, वियतनाम, के मामले में, हमेशा झूठ ही कहा! अरब उपसागर के युद्ध में जाने से पहले भी, उसने झूठ ही कहा।
सरकार के झूठ को ही ज़्यादातर लोग सच मानकर विश्वास करते हैं। विश्वास करते आ रहे हैं। मेक्सिको से स्पैनिश लोगों को खदेड़ने के बहाने, उसने आधे मेक्सिको पर अपना दखल जमा लिया; टेक्सस भी हथिया लिया। पुएरतो रिको नामक द्वीप भी पूरी तरह आत्मसात कर लिया। जब स्पैनिश लोगों के खिलाफ, क्यूबा का स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था, वहाँ भी वह झपट पड़ा और स्पैनिश लोगों को खदेड़ने के नाम पर आगे अपना दखल जमा लिया। फिलिपिन में भी वही हुआ। सालों-साल फिलिपिन में जंग जारी रही, दास लाख फिलिपिन लोगों ने अपनी जानें गँवाईं। जंग ख़त्म होने के तीन महीने बाद, फिलिपिन की दक्षिणी छोर पर, छः सौ निरीह मुसलमानों को अमेरिकी फौज ने निर्मम तरीके से मार डाला। ख़बर पाकर, रूज़वेल्ट ने अभिनन्दन संदेश भेजा। रूजवेल्ट के इस आचरण पर क्षुब्ध होकर, मार्क ट्वेन ने कहा, 'अब वे अमेरिका की जातीय अखंडता में आस्थावान् नहीं रहे।' आज मार्क ट्वेन नहीं, रूज़वेल्ट ही जाति के गौरव माने जाते हैं।
वियतनाम युद्ध के समय भी संसद सदस्य एकदम से उछल पड़े और सबने खुशी से चीखकर कहा कि वे लोग राजी हैं। वियतनाम में दीर्घ नौ सालों तक जंग चलती रही। अमेरिका की फौज ने वियतनाम के वीस लाख लोगों की हत्या कर डाली। कोरिया में भी तीन साल में परे तीस लाख! यद्ध के समय, हर बार यही कहा जाता है कि सिर्फ फौजी टार्गेट पर ही बम गिराए जाएँगे। लेकिन तीसरी दुनिया के दरिद्र देशों में इतने ज़्यादा मिलिटरी टार्गेट नहीं होते। जल्दी ही ख़त्म हो जाते हैं! जब वे टार्गेट ख़त्म हो जाते हैं, तो और-और जगहों पर बम गिराए जाते हैं रास्ता-घाट पर, स्कूल-कॉलेज पर, अस्पतालों पर, लोगों के घर-मकान पर! वियतनाम में स्कूल-अस्पतालों पर बम गिराए गए। जिन बमों को चालाक बम कहकर पुकारते थे, उनमें से पचासी प्रतिशत असल में 'गँवार बम' थे। वे बम यत्र-तत्र जा गिरे। मिलिटरी टार्गेट से मीलों दूर गिरे। उन बमों ने पानी के टैंक, रास्ता-घाट, सेतु-सारा कुछ चूर-चूर कर डाला। रेड-क्रॉस जलाकर फेंक दिया। सन् 91 की फरवरी में, ये बम बगदाद के आश्रय-केंद्र पर भी गिरे, जहाँ आम लोगों ने बम से बचने के लिए आश्रय लिया था। उस केंद्र में पाँच सौ लोगों ने आश्रय लिया था। वह इमारत भी बिल्कुल उसी तरह धंस गई, जिस तरह वर्ल्ड ट्रेड सेंटर धंस गया था। मिट्टी तले छिपे हुए, अधिकांश ही औरत और शिशु थे। अमेरिकी सरकार ने एक बार भी नहीं कहा कि आश्रय केंद्र पर बम गिराना, एक हादसा था, अफसोस जाहिर करना तो दूर की बात थी। अफ़ग़ानिस्तान पर बम बरसाए जा रहे थे। इधर यह चर्चा आम थी कि मिस्र की मरुभूमि में सत्ताईस हज़ार अमेरिकी फौजों ने गोलियाँ बरसाई हैं। सन् 73 में मिन की इसी मरुभूमि पर, अमेरिकी फौज ने चौदह हज़ार मिस्री फौज को कत्ल कर डाला था।
किसी पत्रकार ने अभी उसी दिन किसी अमेरिकी फौजी से सवाल किया, 'तुम लोगों को कैसा लग रहा है?'
फौजी ने जवाब दिया, 'बहोत अच्छा लग रहा है। गोलियों की आवाज़ पर, लोग जब डर के मारे इधर-उधर दौड़ने-भागने लगते हैं तो देखकर वहोत मज़ा आता है! दुनिया में जहाँ भी, जितने भी बुरे लोग हैं, हम सबको मारकर ख़त्म कर देंगे।'
वाकई! क्या बात है! कौन भला इंसान है, कौन बुरा--यह फैसला करने की जिम्मेदारी, अब पूरी तरह अमेरिका की जो है! अमेरिका, अब तालिवान को जड़ से निर्मूल करना चाहता है। दुनिया में जहाँ कहीं भी ओसामा बिन लादेन का समर्थन है, वहाँ उन्होंने बम बरसाने की इच्छा जाहिर की है! तालिबान! कौन हैं ये तालिबान? किन लोगों को निर्मल करने के लिए, अमेरिका इस कदर पगला उठा है। कभी किसी ने यह जानना चाहा है? निरीह किशोर, नौजवान, शरणार्थी अफगानों ने ज़्यादातर अभाव, रोग और अशिक्षा में ही अपनी जिंदगी गुजारी है। जन्म से ही इन लोगों ने हमेशा युद्ध देखा है, हथियार देखे हैं। जो थोड़ी-बहुत शिक्षा नसीब हुई, वह मदरसे में! इन कम उम्र लड़कों को और कुछ होने का मौका था क्या? आज उन लोगों। को धर-पकड़कर कन्धार में स्थित अमेरिका नियंत्रित डिटेंशन कैम्पों में ले जाया जा रहा है। क्यूबा के उपसागर में लंगर डाले खड़े, अमेरिका के नौ-वाहिनी जहाजों में उन लोगों को भरा जा रहा है, जहाँ मिलिटरी ट्राइबुनल में अमेरिकी सरकार इन किशोरों को सख्त सज़ा देने का इंतज़ाम करेगा। पंद्रह हज़ार अमेरिकी फौज, क्यूबा के गुवानतानायो उपसागर की तरफ भेजी गई है।
अमेरिकी सरकार आज यह कबूल करने को तैयार नहीं है कि ये तालिबान तैयार करने के लिए अमेरिका की विदेशी नीति ही जिम्मेदार है। सन् 1998 में फ्रांस के नोबेल आब्जर्वेटर अखबार ने जिमी कार्टर के ज़माने के, जातीय सुरक्षा सलाहकार, ब्रोजेनस्की का एक इंटरव्यू छापा था। उस इंटरव्यू में ब्रोजेनस्की ने कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत यूनियन के दाखिल होने से छः महीने पहले, अमेरिका इस देश में गुपचुप घुस आया था। सोवियत ने जब अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया, तब अमेरिका ने अफ़गान मुजाहिदीनों के हाथ में हथियार थमा दिए, यह बात आम लोग जानते हैं। लेकिन सोवियत हमले के बाद नहीं, असल में छः महीने पहले ही अमेरिका ने हथियार दे डाले थे। ब्रोजेनस्की का कहना है कि दरअसल यह एक चाल थी, सोवियत को उकसाने के लिए! अमेरिका को मालूम था कि सोवियत, पड़ोसी देश में अमेरिका की दखल कबूल नहीं करेगा। वह जवाबी हमला करेगा या प्रतिरक्षा के लिए बौखला उठेगा। इसीलिए उसने यह तैयारी की। अफ़ग़ानिस्तान के जन साधारण के धार्मिक विश्वास को कुरेदकर अमेरिका ने तथाकथित वास्तविक लोगों के खिलाफ भिड़ा दिया था। सोवियत जैसे ही अफ़ग़ानिस्तान में उतरा, ब्रोजेनस्की ने कार्टर को ख़बर भेज दी थी-'चलिए, इस देश को अभी ही वियतनाम बना देते हैं। सोवियत को मात देने का यह सुनहरा मौका है। मुसलमानों को भड़काने के बारे में जब ब्रोजेनस्की से सवाल किया गया, तो उन्होंने जवाब दिया, 'कौन बड़ा है? मुस्लिम कट्टरवाद का उत्थान? या सोवियत का पतन?' वेशक, सोवियत का पतन ! अमेरिका उन दिनों एक के उत्थान करके, दूसरे के पतन में मगन हो गया था। अब वह दुबारा अपने पुराने दिन के पतन में व्यस्त है।
अमेरिका आज जिसे दोस्त कहता है, कल ही उसे दुश्मनी में बदल सकता है। इतिहास में इसके काफी उदाहरण हैं। ईरान का रजा शाह पहलवी भला आदमी नहीं है। यह शख़्स नाज़ियों से हाथ मिला सकता है। यह कहकर अमेरिका ने शाह को झडुवाकर विदा कर दिया। शाह के बाद, जब सन् पचास के दशक में मोहम्मद मोसद्दिक, ईरान के प्रेसिडेंट बने, ईरान में उन्होंने प्रचंड जनप्रियता हासिल की। उन्होंने ईरान की तेल कंपनी को ब्रिटिश के चंगुल से मुक्त करके, उसका राष्ट्रीयकरण कर डाला, यह देखकर ब्रिटिश सरकार पर मानों गाज गिर पड़ी। ब्रिटिश ने अपनी नाक बचाने के लिए अमेरिका से भीख माँगी। अमेरिका ने टाँग अड़ाई! टाँग अड़ाने से अमेरिका का भी फायदा! उसने मोसद्दिक को धर-पकड़कर जेल में ठूस दिया और पुराने शाह को ही सत्ता पर आसीन कर दिया। बाद में ईरान-इराक युद्ध में अमेरिका ने इराक का पक्ष लिया। जितनी तरह के जहरीले गैस हैं, उन्हें ईरान के खिलाफ बिखेर देने की कुबुद्धि, ईरान को अमेरिका ने ही दी थी। उन दिनों सद्दाम हुसेन अमेरिका के जानी दोस्त थे। लेकिन अब आँखों का काँटा! पनामा के मैनुएल नरइयेगा का भी वही हाल हुआ। पनामा में गणतंत्र की प्रतिष्ठा के नाम पर, अमेरिका ने ही पनामा दखल किया था। नरइयेगा जैसा मादक चीज़ों के राजा को अमेरिका ने ही सत्ता पर बिठाया था। कुछ दिनों बाद ही नरइयेगा अमेरिका के मन से उतर गया। दोस्त बहुत जल्दी ही शत्रु में बदल गए। उसका फैसला करने के लिए नरइयेगा को अमेरिका लाकर, उसे चालीस साल के लिए जेल भेज दिया गया। उसी नरइयेगा को जेल में ठूस दिया गया, जिसके बिना अमेरिका का काम नहीं चलता था। लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों में, गणतंत्र की प्रतिष्ठा का नाम करके, स्वेच्छाचारी शासक तैनात करके, अमेरिका ने लाखों-लाखों लोगों की जान ले ली। एल सल्वाडोर, गुयेतमाला, निकारागुवा, चिली में, बेकसूर-मासूम इंसानों को, इसी अमेरिका ने मौत के घाट उतार दिया। हज़ार-हज़ार नहीं, लाखों-लाखों इंसान! सन् छियासी में रीगन सरकार ने लीबिया में बेवजह बम बरसाकर सैकड़ों लोगों की जान ले ली! रीगन ने इल्ज़ाम लगाया कि जर्मनी के एक नाइट-क्लब में, अमेरिकी फौज पर लीबिया ने हमला किया। रीगन के हाथ में इसका कोई प्रमाण नहीं था। यह बात आज भी प्रमाणित नहीं हुई कि उस नाइट क्लब पर लीबिया ने बम बरसाया था।
बहरहाल, अमेरिकी सरकार के लिए किसी सबूत की ज़रूरत नहीं पड़ती। झूठ बोलकर ही काम चल जाता है। झूठ बोलना, अमेरिकी सरकार का स्वभाव है। जिस किसी भी दखल, युद्ध, उपनिवेश में अमेरिका का स्वार्थ होता है, पनामा में नहर था! मध्य-प्राच्य में तेल! इराक ने कुवैत पर हमला किया है-यह कहकर बुश के बाप, बुश जो कुवैत को बचाने के लिए कूद पड़े थे, वह क्या कुवैत के प्रति किसी किस्म के मोह-माया में? उनका उद्देश्य था, तेल अपनी मुट्ठी में रखना; तेल का बाज़ार अपने हाथ में रखना। सऊदी में अमेरिकी फौज आराम से अड्डा गाड़े पड़ी है। क्यों? अब, अफ़ग़ानिस्तान में भी खूटा गाड़कर बैठेगी। उजबेकिस्तान में भी! समूची दुनिया में अमेरिका का राजनीतिक अर्थनैतिक और फौजी उपनिवेश स्थापित होगा। यही तो हो रहा है, वर्ना अफ़ग़ानिस्तान में 7 अक्तूबर से बम-वर्षा शुरू करने के कई दिनों बाद ही, डोनाल्ड रम्सफील्ड, अफ़ग़ानिस्तान की गरीबी पर व्यंग्य करते हुए, यह कहकर नहीं हँसते- वी आर रनिंग आउट ऑफ टार्गेट!' अभी ही अगर 'टार्गेट' ख़त्म हो जाए, तो आज, तीन महीने बाद भी बमबाज़ी बंद क्यों नहीं हुई? टार्गेट तो जुटाते जा रहे हैं। अपनी ज़रूरत पर टार्गेट जुटा लेने की चतुरता अमेरिका में मौजूद है। अफ़ग़ानिस्तान पर बम बरसाना अभी तक बंद क्यों नहीं हुआ, यह सवाल अमेरिका की अवाम नहीं करती। उन लोगों को नए-नए कारण दिखाकर बहलाया-फुसलाया जा रहा है, वे लोग भी झाँसे में आ जाते हैं। वुश ने फरमाया-'ओसामा दोषी है।' जनता ने भी समवेत स्वर में हुंकारी भर दी–'हाँ, ओसामा दोषी है।' दोष साबित करने का भी एक तरीका होता है; एक नियम होता है, मानवाधिकार और गणतंत्र का दावा करने वाली अमेरिकी सरकार, उसके आस-पास से भी गुज़रने को राज़ी नहीं है। ओसामा, वह बीमार ओसामा, जो इंसान डायलिसिस पर जिंदा है। उसकी खोज में समूचे अफ़ग़ानिस्तान पर बम बरसाया जा रहा है। वह आज इस पहाड़ पर है या फिर उस पहाड़ पर! यह भी झूठ है। मूल उद्देश्य है, इसी बहाने अमेरिकी फौज से समूचे अफ़ग़ानिस्तान को भर देना। सर्वाधुनिक अस्त्र-शस्त्र तैयार करने में जिस देश का कोई जोड़ नहीं है, उस देश के पक्ष में अफ़ग़ानिस्तान के हज़ारों-हज़ार लोगों की हत्या करने के बजाय, अलग से ओसामा की हत्या करके भी अमेरिका अपना शौक पूरा कर सकता था। जो सी आइ ए इस गुप्त हत्याकांड में कई-कई सालों से अपने हाथ पक्के कर चुका था वही इस काम को भी अंजाम दे सकता था, लेकिन अमेरिका उस ऑपरेशन में नहीं गया। बम बरसाकर, समूचे एशिया में त्रास फैलाना ही उसका मूल उद्देश्य था।
कहीं, कुछ घटते ही अमेरिका उसका तत्काल समाधान चाहता है। उन लोगों की राय में तत्काल समाधान है, बम बरसाना! पैर में घाव हो गया है, पाँव काट डालो! सिर-दर्द हो रहा है, सिर काटकर फेंक दो। लेकिन, डॉक्टर लोग ऐसा नहीं करते। डॉक्टर वर्ग को मेडिकल एथिक्स मानना होता है और मेडिकल एथिक्स यह कहता है कि इलाज करते हुए, मरीज का कोई नुकसान न किया जाए। अमेरिका लगातार दुनिया भर के लोगों को नुकसान पहुंचा रहा है। कई-कई सालों से नुकसान पहुँचा रहा है। अमेरिका कभी यह फैसला करे कि वह समूचे वाशिंगटन पर बम बरसाएगा? नहीं. वह ऐसा नहीं करेगा. क्योंकि वहाँ अमेरिकी लोग रसे-बसे हैं। किसी अमेरिकी की जिंदगी, जिस किसी भी जिंदगी से ज़्यादा कीमती है। अल-कायदा के जितने भी कैम्प थे, सब उड़ा दिए गए। ओसामा के सारे अस्त्र-शस्त्र ध्वंस कर दिए गए। यह मामला वाकई हास्यास्पद है। 11 सितंबर को दुनिया के सबसे बड़ी मिलिटरी शक्ति वाले देश, अमेरिका पर हमले के लिए मोहम्मद अता और उसके साथियों को टन-टन बजनवाले बम की ज़रूरत नहीं पड़ी। किसी मिसाइल डिफेंस शील्ड की भी ज़रूरत नहीं पड़ी। नन्हा-सा बॉक्स-कटर ही काफी था। छुरी भी नहीं, महज बॉक्स-कटर! देखने में छुरी जैसा बॉक्स-कटर लोगों की जेबों में मौजूद रहता है। यह कोई हथियार नहीं है! बुश ने कहा-'वे लोग कायर हैं!' नहीं वे लोग कायर नहीं हैं कायर तो वे लोग हैं, जो मक्खी को मारने के लिए तोप दागते हैं, जो लोग धन के गरूर में तीस हज़ार फुट की ऊँचाई से बम बरसाकर, निरीह व निर्विरोध, निरपराध इंसानों की हत्या करते हैं; जो लोग जन-साधारण के टैक्स के रुपए, इंसान की हिफाज़त में लगाने के बजाय, दूसरों को नुकसान पहुंचाने में खर्च करते हैं।
अमेरिका पर लोग-बाग़ नाराज़ क्यों हैं? मध्य-प्राच्य, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका इस कदर क्षुब्ध क्यों है? इसकी जानकारी जरूरी है! अमेरिका की विदेशी नीति से दुनिया के करोड़ों-करोड़ इंसान आक्रांत हैं। उनके क्षुब्ध होने की वजह भी है। क्षुब्ध इंसान ही कभी-कभी उग्रवादी हो उठता है। तभी वह वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के पेट में हवाई जहाज घुसेड़ देता है। दिशा-दिशाओं में बम-वर्षण, अमेरिका के विरुद्ध लोगों को क्षुब्ध कर देता है, यह बात उस देश के जन-साधारण के दिमाग में नहीं आती। चूंकि उन्हें यह बात समझ में नहीं आती, इसलिए वे लोग कोई सवाल नहीं करते। डोनाल्ड रम्सफील्ड या बुश, जो समझाते हैं, जनता-जनार्दन वही समझ लेती है। असल में जनता बहुत सारी सच्चाइयाँ न समझती है, न जानती है। उसे खबर ही नहीं है कि दुनिया के बीस करोड़ लोगों को खाना-पीना तक नसीब नहीं है। वे नहीं जानते कि दुनिया के करोड़ों-करोड़ इंसानों को दो जून का खाना तक नसीब नहीं है। उनको यह भी नहीं मालूम कि बम फेंककर संत्रास नहीं रोका जा सकता, सुरक्षा निश्चित नहीं की जा सकती। ऐसा किसी दिन नहीं हुआ! वे कारलाइन ग्रुप से अनजान हैं। अमेरिका में कारलाइन ग्रुप काफी चोरी-छिपे निर्मित हुआ है। बड़े-बड़े क्षमताधारी इसके मालिक हैं। अर्थ शक्ति, राजनीतिक शक्ति और मिलिटरी शक्ति! सऊदी अरब के रुपए, अमेरिका की सरकार और अमेरिका की फौज! भूतपूर्व प्रेसिडेंट बुश, स्टेट सेक्रेटरी, कॉलिन पावेल, पेंटागॅन के बड़े-बड़े अफसर, ओसामा बिन लादेन का सौतेला भाई, बकर बिन लादेन, इनमें अन्यतम हैं। कारलाइन ग्रुप के पक्ष से सीनियर जॉर्ज बुश, कई बार सऊदी अरब हो आए हैं। सऊदी प्रिंस के इस ग्रुप न ढेरों रुपए ढाले हैं! शीत-युद्ध के समय इसी कारलाइन ग्रुप ने 'क्रूसेडर' नामक अत्याधुनिक अस्त्र तैयार किया था। जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का पतन हुआ, इस ग्रुप का उदय हुआ। 11 सितंबर के बाद इस कारलाइन ग्रुप के हाथों, मानों स्वर्ग आ गया। फ्रैंक कारलूची जो भूतपूर्व स्टेट डिफेंस सेक्रेटरी थे, कारलाइन ग्रुप के चेयरमैन हैं और वर्तमान डिफेंस सेक्रेटरी डोनाल्ड रम्सफील्ड के दोस्त हैं! चूँकि कोरिया में कारलाइन ग्रुप का टेलीकम्युनिकेशन का कारोबार स्थित है। इसलिए उत्तर कोरिया में बुश को अचानक शांति-समझौते की ज़रूरत आन पड़ी। दक्षिण-उत्तर में अगर शांति कायम रहे तो धंधा अच्छा चलता है! युद्ध के लिए भी स्वार्थ ज़रूरी है और शांति के लिए भी! अमेरिका का सबसे बड़ा फौजी-अनुबंध इसी कारलाइन ग्रुप के साथ है। इस तरह गुपचुप क्या घट रहा है इसका आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। देश-देश में जंग छिड़े, संत्रास दमन के नाम पर दीदार अस्त्र-शस्त्र बिकें। इसलिए अमेरिका तो चाहेगा ही और व्यक्तिगत तौर पर बुश भी यही चाहेंगे क्योंकि बाद में अथाह पैतृक संपत्ति के मालिक तो बुश ही होंगे। जनमत इन सब चक्कर से बेख़बर है। भाषाविद्, नाओम चामस्की, लेखक-फिल्म प्रोड्यूसर, माइकेल मूर, लेखक एलिस वाकर, इतिहासकार हावर्ड जिन ने जुबान खोली है। लेकिन, बड़े-बड़े प्रचार माध्यमों तक उनकी आवाज़ पहुँचने नहीं दी जा रही है। जनता अभी भी अज्ञानता के सागर में आँख मूंदकर तैर रही है। अगर वे लोग इसके पीछे की हकीकत जान पाते, तो मुमकिन है वे लोग प्रतिवाद भी करते। वियतनाम में युद्ध के खिलाफ, कम प्रतिवाद तो नहीं हुआ।
संत्रास के खिलाफ जंग, अमेरिका के लिए कोई नई बात नहीं है। ऐसी जंग उसने पहले भी की है। संत्रास दमन के नाम पर देश-देश में संत्रास ही फैलाता रहा है! गणतंत्र-प्रतिष्ठा के नाम पर जैसे स्वेच्छाचारी शासक तैनात करता रहा है, बिल्कुल उसी तरह! कम्यूनिस्ट खदेड़ने के नाम पर जैसे देश दखल करता रहा है, वैसे ही! आज दुनिया के सभी दहशतगर्द राष्ट्रों ने, संत्रास के उस्ताद, अमेरिका से हाथ मिलाया है। राशा! तुर्की! ब्रिटेन! अल्जीरिया! इज़राइल! राशा ने चेचनिया में दहशतगर्दी फैला रखी है। तुर्की, कुर्द लोगों के खिलाफ उग्रवादी हमले किए जा रहा है। पाकिस्तान तो संत्रास का अखाड़ा बन गया है! अल्जीरिया, दहशतगर्दो को पाल-पोस रहा है। इज़राइल शुरू से ही संत्रासी राष्ट्र है। अमेरिका से पहले दुनिया भर में दहशगर्दी का एकछत्र अधिकार ब्रिटेन के पास था। ये लोग आम इंसानों पर हमला करके, अपना राजनीतिक उद्देश्य हासिल करने में उस्ताद हैं। अमेरिका की इस नई जंग में साथ देकर, जन-साधारण को भी ठगकर, उसे बेवकूफ बनाया गया और अपने अपकर्म के इतिहास पर भी पर्दा डाल दिया गया। यह हमने इतिहास से जाना है, अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध से ज़रा और ज़्यादा जाना है, संत्रास दमन करने का मतलब है, संत्रास फैलाना! अमेरिका ने समूची दुनिया में संत्रास फैला रखा है, अविराम फैलाता जा रहा है। यूरोप में एक कानून था कि बिना किसी इल्ज़ाम के किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जा सकता; बिना किसी निर्णय के किसी को भी जेल में नहीं भरा जा सकता। उस कानून की परवाह न करते हुए, अब तो जिस-तिस को चाहो, गिरफ्तार कर लो! अमेरिका की हवालातों में भी क़ानून तोड़कर हज़ारों हज़ार मुसलमानों को धर दबोचा जाता है और तथाकथित खबरें निकालने के लिए उन पर बेभाव अत्याचार किया जाता है। फ्रांस के नागरिक, जकारियास मोसाउई, ब्रिटिश नागरिक, रिचार्ड रिड को गिरफ्तार कर लिया गया है। कहा जा रहा है कि उन्हें मृत्युदंड दिया जाएगा। जनगण को जकारियास या रिचार्ड रिड का कोई वक्तव्य सुनने नहीं दिया जा रहा है। जनता एकतरफ राय भर जानती है। दूसरे पक्ष के मुँह पर बंदूक की नली है। इसी तरह एक और पक्ष के सिर पर बम-वर्षक विमान। अमेरिका ने विश्व-पलिस का चेहरा अख्तियार कर रखा है! अफसोस है कि विश्व-पुलिस वाहिनी ने सच्चाई और ईमानदारी का, कभी किसी दिन लेशमात्र भी जिक्र नहीं किया।
यही तो है हमारी दुनिया। हम इसी दुनिया में ज़िंदा हैं, जी रहे हैं। यूँ जीते हुए हम सब मानवता, स्वाधीनता वगैरह की बातें करते हैं। हम राष्ट्रसंघ के प्रति आस्थावान हैं। छिः! कोई भी मानवाधिकार संस्था, कोई भी गणतांत्रिक राष्ट्र, यहाँ तक कि हमारा लाड़ला राष्ट्रसंघ भी, अमेरिका के इस घृणित, जघन्य, गैर गणतांत्रिक, अमानवीय राष्ट्रीय दहशतगर्दो के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोलता। कोई भी बुश को युद्ध के अपराधी के रूप में कठघरे में खड़ा करने की भी बात नहीं करता। विवेक को छुट्टी दे दी गई है। अमेरिका के कई नोबेल-प्राप्तकर्ता वैज्ञानिकों ने कहा है-'चिकित्सा प्रणाली में विकास की वजह से दुनिया का एक नुकसान तो हुआ है, इंसान मरता नहीं, जिंदा रहता है। इस जीते रहने का ही नतीजा है कि दुनिया की आबादी ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ गई है।' वे सब वैज्ञानिक शायद थोड़ी-बहुत राहत की साँस ले सके हैं, जब अमेरिका की इस ध्वंस-लीला में तीसरी दुनिया के लाखों-लाखों लोग दम तोड़ रहे हैं।
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- पूर्व का प्रेम
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- जिसका खो गया सारा घर-द्वार